आजादी के बाद से यूपी में ऐसे बना हुआ है राजपूतों का दबदबा, राज्य में यूं जारी है जाति की राजनीति

भारत राजनीति या फिर क्षेत्र के इतिहास पर नजर डाली जाए तो आपको इस बात का एहसास होगा कि किस तरह से ठाकुरों का दबदबा यूपी में बना हुआ है।

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उत्तर प्रदेश की जमीन पर ठाकुर का प्रभाव किस तरह से रहा है ये मुद्दा एक बार फिर से उस वक्त सुर्खियों में आया जब यूपी में हाथरस गैंगरेप की घटना घटी। उस दर्दनाक अपराध को एक दलित वाल्मीकि के समुदाय की लड़की के साथ अंजाम दिया गया। जिन आरोपियों ने ये किया उनमें से चार तो ठाकुर थे। वैसे देखा जाए तो ठाकुर समुदाय के लोग खास तौर पर उत्तर भारत से जुड़े सामाजिक ही नहीं राजनीतिक क्षेत्र पर भी दबदबा बनाए हुए हैं और खास तौर पर तो यूपी में।  गांव में बसने वाले छ: सौ परिवारों के अंदर आधे से ज्यादा ठाकुर है, 100 ब्राह्मण और 15 दलित परिवार से ताल्लुक रखते हैं।

कौन है ठाकुर?

भारतीय सोसाइटी के कास्ट बेस्ड स्ट्रक्चर में ठाकुर समुदाय के लोग ब्राह्मणों के बाद आते हैं। उन्हें योद्धा वर्ग के तौर पर भी जाना जाता है। मानवविज्ञानी का ये कहना है कि ठाकुर- राजपूत लगभग समानार्थक हैं। ठाकुर समुदाय के लोग उत्तर भारत के अंदर प्रमुख भूस्वामी माने जाते हैं। विद्वानों की बात पर ध्यान दें तो लैंड ऑनरशिप और जाति समुदाय की सामाजिक और राजनीतिक आधार पर अच्छा संबंध होता है। जोकि साफ नजर आता है। असंगति से अधिक संख्या में ठाकुर के पास यूपी में जमीने मौजूद है। इस बात की झलक 2016 में छपाई एक स्टडी के चलते सामने आई है। 

स्टडी में ये भी बताया गया है कि यूपी के अंदर 14 जिलों के 7 हजार से ज्यादा घरों के सर्वेक्षण हुए हैं और ये फैसला लिया गया है कि उच्च हिंदू समूहों पर नजर डाली जाए तो उनके पास सैंपल परिवारों का 15% है, वे जमीन के सबसे सर्वश्रेष्ठ मालिक के तौर पर उभर कर सामने आया करते हैं, जो 30 प्रतिशत के करीब हिस्से को कंट्रोल करने का काम करते हैं।  इस ग्रुप के अंदर जमीन में ठाकुरों की हक के अंदर आने वाले घरों की संख्या के लगभग 2.17 गुना दर्ज है।

समाजशास्त्री सतेंद्र कुमार का कहना है कि 1950 और 60 के दशक की बात करें तो भूमि सुधारों के वक्त ठाकुरों ने बहुत सी जमीनों को अपने हाथों से खो दिया। इसका अच्छा खासा असर पश्चिमी यूपी में देखने को मिला था जहाँ हाथरस की घटना हुई है। लेकिन इसके चलते अन्य पिछड़ी जातियां (ओबीसी) को काफी लाभ मिला था। वहीं, अनुसूचित जातियां उच्च जातियों पर निर्भर ही बनी रहीं थी, जिससे ठाकुरों और ब्राह्मणों ने अपनी सत्ता को वैसे ही जारी रखा था जैसे कि पहले था।

रियासतों से है ताल्लुक

ठाकुर समुदाय की ताकत का एक और जरिया रियासतें से ताल्लुक रखना है। यदि आप राज्य के ठाकुर राजनेताओं पर नजर डालते हैं तो उनमें से ज्यादातर शाही परिवार से संबंध रखते हैं। उदाहरण के तौर पर आप वीपी सिंह को ही देख लीजिए जोकि मंडा के राजा थे।  वहीं, इसके अलावा राजा भैया के नाम से मशहूर रघुराज प्रताप सिंह, जोकि कुंडा निर्वाचन क्षेत्र से निर्दलीय विधायक हैं। बहुत कम लोगों को ये पता है कि वह भदरी के शाही परिवार के वंशज हैं। इसके अलावा भारत के आठवें प्रधानमंत्री बने चंद्र शेखर पूर्वी यूपी में एक शक्तिशाली जमीदार परिवार से ताल्लुक रखते थे।

यूपी में राजनीति को तीन चरणों में बांटा 

यह सत्य है कि यूपी के राजनीतिक परिदृश्य को एक आकार देने में जाति शब्द ने अहम किरदार निभाया है, खासतौर पर देखा जाए तो पिछले 30 सालों के अंदर ये ज्यादा हुआ है। 2017 में सामने आए एक शोध पत्र के अनुसार यूपी में राजनीति को देखा जाए तो तीन मुख्य चरणों के हिसाब से बांटा जा सकता है। आजादी से 1960 तक जो पहला चरण है उसमें कांग्रेस राजनीतिक क्षेत्र में दबदबा बनाती हुई नजर आई थी और ये चीज खास तौर पर ब्राह्मणों और ठाकुरों के बीच केंद्रित था। दूसरे चरण की बात करें तो वो 60 के दशक से था जब भूमि सुधार के साथ-साथ सकारात्मक भेदभाव ने कुछ मध्यम जातियों जिसमें यादव और गुर्जरों आते हैं उनको सामाजिक गतिशीलता प्रदान करने का काम किया है। इस समय वी पी सिंह के अलावा वीर बहादुर सिंह के रूप में उत्तर प्रदेश को अपने पहले ठाकुर सीएम मिले हैं। 

उत्तर प्रदेश के अंदर राजनीति के तीसरे चरण की शुरूआत 1990 से हुई थी, जिसे 'मौन क्रांति' का युग भी बोलते हैं। यहीं वो वक्त था जब समाजवादी पार्टी और बसपा का उदय हुआ, जिसने सामाजिक न्याय के अलावा सत्ता की अधिक  मांगों के नारे का इस्तेमाल करते हुए उच्च जातियों के खिलाफ समाज के निचले हिस्से को एकजुट करने का काम किया।  इतना ही नहीं उदाहरण के तौर पर ये भी देखा गया है कि जब सपा यूपी में चुनाव के अंदर जीत हासिल करती है, तब राज्य विधानसभा के अंदर ठाकुर बड़े ग्रुप के तौर पर सामने आते हैं और बसपा की जीत के परिदृश्य के आधार पर ब्राह्मणों के अलावा कोई भी ज्यादा सीटों पर अपना कब्जा नहीं कर पाता है। इसके अलावा पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव 1997 के अंदर अमर सिंह को ठाकुरों के चेहरे के रूप में सबके सामने लेकर आए थे। वहीं, जाट और वाल्मीकि अपने-अपने सामाजिक विभाजन के चलते मुख्य जातियों के विरोध में एक गठबंधन समूह के आधार पर उभरने में असफल रहे। 

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