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कहते हैं कर्म घूम के आते हैं जिस पद्मिनी को खिलजी पा न सका उसने जौहर की आग में खुद को भस्म कर लिया फिर सालो बाद उसी खिलजी की बेटी फिरोज़ा ने भी राजपूत राजकुमार विरम देव के प्यार में वही आग चुन ली जौहर की. इतिहास ने जैसे अपना बदला पूरा किया, 'जैसल घर भाटी लजै, कुल लाजै चौहाण। हुं किम परणु तुरकड़ी, पछम न उगै भांण।' इसका अर्थ है कि मेरे मामा भाटी हैं और मैं चौहान वंश का हूँ, मैं इस लड़की से उसी प्रकार विवाह नहीं कर सकता जिस प्रकार सूर्य पश्चिम से नहीं उग सकता।' इस दोहे से वीरम देव ने साबित किया की उनके प्रेम के ऊपर उनके कुल की मर्यादा और धर्म का मान था
आज हम लेकर आए हैं—अलाउद्दीन खिलजी की बेटी फिरोज़ा और मेवाड़ के राजकुमार वीरमदेव की वह कथा जो इतिहास में पूरी तरह दर्ज भले न हो पर राजस्थानी लोक-कथाओं में आज भी सांस लेती है।
एक ऐसी कहानी— जहां प्रेम था… पर मर्यादा उससे भी बड़ी। जहां दिल जुड़े… पर किस्मत ने जुदाई लिखी। और अंत में एक स्त्री ने प्रेम की आग में नहीं, प्रेम के सम्मान में अग्नि को स्वीकार किया— फिरोज़ा का सती होना। अलाउद्दीन खिलजी का महल शक्ति, वैभव और डर का केंद्र। इसी महल में पली थी— राजकुमारी फिरोज़ा। सुल्तान की सबसे चहेती बेटी। सुंदर, बुद्धिमती और दिल से बेहद कोमल। एक दिन दिल्ली दरबार में मेवाड़ से आए राजकुमार वीरमदेव की उपस्थिति ने पूरा दरबार मोहित कर दिया। राजपूतों का सौम्य तेज…ऊँची नासिका, कंधों पर शौर्य की छाप और आँखों में मर्यादा का अटल प्रकाश। फिरोज़ा ने उन्हें देखा और बस उस एक पल में दिल ने एक कहानी लिख दी जिसे किस्मत ने बाद में आँसुओं से पूरा किया। फिरोज़ा अक्सर महल की बुर्जों से वीरमदेव को दरबार में आते-जाते देखती। दिल की धड़कनें… हर बार तेज हो जातीं। एक दिन किस्मत ने उन्हें अकेले मिलने का मौका दिया। महल के बाग में जहां हरी घास पर चांदनी बिखरी थी। फिरोज़ा ने पहली बार कहा— “राजकुमार… मैं आपको जानना चाहती हूँ…” वीरमदेव चौंक गए। उन्होंने झुककर कहा— “राजकुमारी, हम राजपूत… दूसरों की ओर आँख उठाकर भी नहीं देखते। हमारा धर्म… हमारा कुल… हमें मर्यादाओं में बाँधता है।” लेकिन… प्रेम का बीज तो बोया जा चुका था। उनके बीच शब्दों से ज्यादा खामोशियाँ बोलती थीं। पर महलों में रहस्यों का छिपना आसान नहीं। फिरोज़ा के दिल की धड़कनेंअलाउद्दीन खिलजी तक पहुँच ही गईं। सुल्तान ने सबके सामने दहाड़ते हुए कहा— “मेरी बेटी… एक राजपूत से प्रेम करेगी? जिन्हें मैं घुटनों पर लाना चाहता हूँ?” दुनिया जानती थी— खिलजी चाहे तो पहाड़ तोड़ दे राजकुमार पर क्या बात थी! लेकिन फिरोज़ा खड़ी हो गई अपने पिता के सामने। “अब्बाजान… यह मेरे दिल का मामला है। और मेरे दिल में राजकुमार वीरमदेव बसते हैं।” उस दिन महल में सिर्फ चुप्पी नहीं छाई, बल्कि इतिहास ने खुद अपना रास्ता मोड़ दिया। खिलजी ने सोचा— यदि वीरमदेव को दामाद बना लिया जाए, तो मेवाड़ को आसानी से नियंत्रण में लिया जा सकता है। उसने दूत भेजा— “मेरी बेटी फिरोज़ा तुम्हें चाहती है। आओ, शादी कर लो। दिल्ली सल्तनत तुम्हारी ताकत बन जाएगी।” लेकिन वीरमदेव ने उत्तर दिया— “राजपूत सत्ता के लिए विवाह नहीं करता। हम अपने वचन, अपनी जाति, अपने धर्म को किसी सौदे में नहीं बदलते।” फिरोज़ा टूट पड़ी… पर राजकुमार ने कहा— “मैं तुम्हें प्रेम करता हूँ… पर मैं मेवाड़ की मर्यादा से बड़ा नहीं।” कुछ महीनों बाद मेवाड़ पर हमला हुआ। युद्ध में वीरमदेव घायल हो गए। जब वह अंतिम श्वास ले रहे थे, उन्हें बस एक ही नाम याद आया—फिरोज़ा। उन्होंने कहा— “मेरा प्रण था मर्यादा पर मेरा दिल हमेशा तुम्हारा था।” राजपूत परंपरा के अनुसार वीरमदेव का अंतिम संस्कार किया गया। जब फिरोज़ा को खबर मिली… वह चीख भी नहीं पाई। उसकी आँखों में आँसू थे पर दिल में दृढ़ता। वह बोली— “जिसके लिए मैंने पिता को ठुकराया… जिसने मेरी मर्यादा को अपने सम्मान से रखा… मैं भी उसके पीछे… सम्मान का मार्ग ही चुनूँगी।” फिरोज़ा ने सबको चौंकाते हुए कहा— “मुझे मेवाड़ ले चलो। मैं वहीं… अपने प्रेम की अग्नि को स्वीकार करूँगी।”
सती होने का क्षण – प्रेम की अंतिम अग्नि
वह चिता के पास पहुँचीं, वीरमदेव की राख को हाथ में लिया… और बोली— “तुमने वचन निभाया… अब मेरी बारी है।” चिता में अग्नि प्रज्वलित हुई। और फिरोज़ा… उस अग्नि में प्रवेश कर गईं। और उस दिन— राजपूताना की धरती ने देखा एक मुस्लिम राजकुमारी… अपने राजपूत प्रेम के लिए ‘सती’ की अग्नि को स्वीकार करती हुई। फिरोज़ा और वीरमदेव की यह प्रेमकथा इतिहास की किताबों में भले कम लिखी गई हो, पर लोक-कथाओं में यह एक अमर गाथा है। प्रेम…जो मिला नहीं, पर अमर हो गया।




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