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प्रेमानंद जी महाराज के अनमोल विचार: गृहस्थ और संत जीवन का संतुलन

प्रेमानंद जी महाराज के अनुसार गृहस्थ और संन्यासी जीवन एक-दूसरे के पूरक हैं। दोनों का उद्देश्य ईश्वर प्राप्ति है और दोनों की अपनी चुनौतियाँ होती हैं। जानिए, प्रेमानंद जी के अनमोल विचार जो जीवन को संतुलित और आध्यात्मिक रूप से समृद्ध बनाने में सहायक हैं।

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By Shraddha Singh | Delhi, Delhi | खबरें - 19 February 2025

प्रेमानंद जी महाराज के अनमोल विचार: गृहस्थ और संत जीवन का संतुलन

प्रेमानंद जी महाराज एक महान संत और विचारक हैं, जो जीवन का सच्चा अर्थ समझाते और लोगों को सही मार्ग दिखाते हैं। उनके अनमोल विचार जीवन को संतुलित रखने और आध्यात्मिक उन्नति के लिए प्रेरित करते हैं।

गृहस्थ और संत: कौन श्रेष्ठ?

प्रेमानंद जी महाराज कहते हैं कि जैसे हम अपनी दोनों आंखों में श्रेष्ठता का अंतर नहीं कर सकते, वैसे ही गृहस्थ और संन्यासी में भी श्रेष्ठता तय करना कठिन है। दोनों का जीवन महत्वपूर्ण है और एक-दूसरे के पूरक हैं। गृहस्थ जीवन से ही संन्यास की शुरुआत होती है, क्योंकि संत भी गृहस्थ जीवन में जन्म लेते हैं और फिर विरक्ति की ओर अग्रसर होते हैं।

गृहस्थ हमारी दाहिनी आंख के समान है, जो समाज का पोषण करता है, जबकि संन्यासी भक्ति और साधना द्वारा आध्यात्मिक मार्गदर्शन प्रदान करते हैं। दोनों का लक्ष्य ईश्वर प्राप्ति है, इसलिए न कोई बड़ा है और न कोई छोटा। गृहस्थ अन्न-धन से संतों की सेवा करता है, तो संत ज्ञान और भक्ति से गृहस्थों का मार्गदर्शन करते हैं।

गृहस्थ और संन्यास का संघर्ष

प्रेमानंद जी महाराज बताते हैं कि दोनों मार्ग चुनौतियों से भरे होते हैं। गृहस्थ को परिवार, समाज और आर्थिक जिम्मेदारियों के बीच ईश्वर की आराधना करनी पड़ती है, जबकि संन्यासी को ब्रह्मचर्य का पालन करना होता है, बिना किसी सांसारिक मोह-माया के।

संन्यासी को जीवनभर माता, भाई, पत्नी या परिवार का स्नेह नहीं मिलता, कोई मनोरंजन नहीं होता, न ही कोई भौतिक सुख। वह अपनी इच्छाओं को जलाकर भगवान की साधना में लीन रहता है। इसी प्रकार, गृहस्थ भी अपनी चिंताओं के बीच रहते हुए धर्म और सेवा का पालन करता है।

ईश्वर प्राप्ति का मार्ग

प्रेमानंद जी महाराज कहते हैं कि भगवान श्रीकृष्ण ने भी गीता में कहा है कि मेरा स्मरण करते हुए अपने कर्तव्यों का पालन करो, तो निश्चित ही ईश्वर की प्राप्ति होगी। चाहे गृहस्थ हो या संन्यासी, यदि वह पाप से दूर रहकर, भक्ति और कर्मयोग के मार्ग पर चलता है, तो उसे वही गति प्राप्त होती है जो संत को मिलती है।

अतः गृहस्थ और संन्यास दोनों ही जीवन के अभिन्न अंग हैं। दोनों की दृष्टि एक ही है—भगवान।

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