राजा महेन्‍द्र प्रताप सिंह की कहानी, जिनके नाम पर रखा गया यूनिवर्सिटी का शिलान्यास

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अलीगढ़ में राजा महेंद्र प्रताप सिंह के नाम पर यूनिवर्सिटी का शिलान्यास करेंगे

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देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अलीगढ़ में राजा महेंद्र प्रताप सिंह के नाम पर यूनिवर्सिटी का शिलान्यास करेंगे. उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार ने सितंबर, 2019 में अलीगढ़ में राजा महेंद्र प्रताप सिंह के नाम एक राज्य स्तरीय यूनिवर्सिटी खोलने की घोषणा की थी.पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुज़्ज़फ़्फ़रनगर से सांसद और केंद्र सरकार में राज्य मंत्री संजीव बालियान कहते हैं, "राजा महेंद्र प्रताप सिंह स्वतंत्रता संग्राम में शामिल रहे हैं, उन्होंने भारत की पहली निर्वासित सरकार बनाई. उन्होंने समाज के लिए कई तरह के संस्थान खोले थे. एएमयू जैसी यूनिवर्सिटी के लिए उन्होंने ज़मीन दी थी. लेकिन उनके योगदान को पूरी तरह भुला दिया गया. उनसे कम योगदान देने वालों का नाम पिछली सरकारों में हर दूसरे तीसरे दिन लिया जाता रहा, लेकिन जाट समुदाय के इतने महान नेता के योगदान को याद नहीं रखा गया.


जानिए कौन थे राजा महेंद्र प्रताप सिंह

राजा महेंद्र प्रताप सिंह पश्चिमी उत्तर प्रदेश के हाथरस ज़िले के मुरसान रियासत के राजा थे. जाट परिवार से निकले राजा महेंद्र प्रताप सिंह की शख़्सियत के कई रंग थे. वे अपने इलाक़े के काफ़ी पढ़े-लिखे शख़्स तो थे ही, लेखक और पत्रकार की भूमिका भी उन्होंने निभाई. पहले विश्वयुद्ध के दौरान अफ़ग़ानिस्तान जाकर उन्होंने भारत की पहली निर्वासित सरकार बनाई. वे इस निर्वासित सरकार के राष्ट्रपति थे.


एक दिसंबर, 1915 को राजा महेंद्र प्रताप सिंह ने अफ़ग़ानिस्तान में पहली निर्वासित सरकार की घोषणा की थी. निर्वासित सरकार का मतलब यह है कि अंग्रेज़ों के शासन के दौरान स्वतंत्र भारतीय सरकार की घोषणा. राजा महेंद्र प्रताप सिंह ने जो काम किया था, वही काम बाद में सुभाष चंद्र बोस ने किया था. इस लिहाज़ से देखें तो दोनों में समानता दिखती है.


हालांकि सुभाष चंद्र बोस कांग्रेसी थे और राजा महेंद्र प्रताप सिंह घोषित तौर पर कांग्रेस में नहीं रहे. हालांकि उस दौर में कांग्रेस के बड़े नेताओं तक उनकी धमक पहुँच चुकी थी. इसका अंदाज़ा महेंद्र प्रताप सिंह पर प्रकाशित अभिनंदन ग्रंथ से होता है जिसमें उनके महात्मा गांधी से संपर्क का ज़िक्र है.


1946 में जब वो भारत लौटे तो सबसे पहले वर्धा में महात्मा गांधी से मिलने गए. लेकिन भारतीय राजनीति में उस दौर की कांग्रेस सरकारों के ज़माने में उन्हें कोई अहम ज़िम्मेदारी निभाने का मौक़ा नहीं मिला.

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